रविवार, 20 मई 2018

मैं क्यों लिखती हूँ ? (भाग-2)




To write is thus to disclose the world and to offer it as a taste to the generosity of the reader-why write?

आलेख में ज्याँ पॉल सात्रं द्वारा लिखित ये पंक्तियाँ की इस प्रकार लिखना की दुनिया को उजागर किया जाए, तथा इसे पाठक की सदाशयता पर छोड़ा जाए की वह इस कार्य को अपने हाथ में लें |  सात्रं की ये पंक्तियाँ मुझे बहुत प्रिय है |
अर्पणा दीप्ति 

अक्सर मेरे मन में यह सवाल उठता है की मैं क्यों लिखती हूँ ? जब बिना लिखे हुए भी दुनिया में अधिकाँश लोग अपना जीवन बड़े आराम से जी रहें हैं, तब लिखने में मुझे अपना समय क्यों जाया करना चाहिए ? एक बिजनेसमैन सोचता है किस तरह कम समय ने अधिक से अधिक ग्राहकों के सम्पर्क में आकर वह अधिक मुनाफा कमा सके, एक डाक्टर सोचता है की कैसे कम समय में अधिक से अधिक मरीजों को निपटाकर अधिक पैसे इकट्ठे किये जा सकें | एक ट्यूटर सोचता है की कैसे समय का अधिकाधिक उपयोग कर विद्यार्थियों के अधिक से अधिक समूहों को पढ़ाने का प्रयोजन हो और अर्थोंमुख होने का कीर्तिमान बनाया जा सके | ऐसी सोच के आज के इस गतिमान प्रवाह में जहाँ अपने समय को अर्थ में बदलने की होड़ लगी हो तब एक लेखक के मन में यह विचार आना स्वाभाविक है कि मैं क्यों लिखती/लिखता हूँ ?


यह जानते हुए भी की लिखना अपने समय को अर्थ में बदल पाने की कला से कभी आबद्ध नहीं कर  सकता, उसके बावजूद भी अगर मैं लिखती हूँ तो इस लेखन का मेरे जीवन में गहरे निहितार्थ है | इस निहितार्थ में जीवन के उन सारे मूल्यों के नाभिनालबद्ध होने की गहरी आकांक्षा है जिसे मैं अपने जीवन के साथ-साथ दूसरों के जीवन के आस-पास देखना चाहती हूँ | लेखक-लेखिकाओं के ऊपर प्राय: यह आरोप लगाए जाते हैं कि वे यश की इच्छा के गम्भीर रोग से ग्रसित होते हैं और उनका लेखन इसी रोग का प्रतिफलन है | पर यह तथ्य सही प्रतीत नहीं होता, क्योकिं यश की दौड़ में आज का लेखक कहीं भी ठहरता हुआ नजर नही आता ! यह एक ऐसा दौर है जिसमे अमिताभ बच्चन, अनुष्का शर्मा, विराट कोहली सलमान खान, सोनम कपूर जैसे विचार शून्य सेलिब्रिटीज ने यश की लगभग समूची जगह को घेर सा लिया है | आज की यह दौर विचारशून्यता को पोषित करने का दौर है, जहाँ लेखक के लिए कोई जगह शेष नहीं है | इसके बावजूद मैं लिखती हूँ तो मेरा लिखना यशोगामी कैसे हो सकता है ? मेरे आस-पास क्या सब कुछ ठीक है ? जब देश-दुनिया की अधिकाँश आबादी ने अपने समूचे समय और जीवन को अर्थ उपार्जन और कामवासना की तृप्ति के लिए ही रख छोड़ा है ऐसे में भला सबकुछ कैसे ठीक हो सकता है ? मुझे यह भी मालूम है मेरे लिखने से सब कुछ ठीक नहीं हो सकता फिर भी मैं लिखती हूँ | इस लिखने में एक सूक्ष्म आकांक्षा है कि सबकुछ न सही, उसके रत्तीभर आकार का हिस्सा अगर ठीक हो सके तब मेरा लिखना सार्थक है | यह सोच मेरे दिमाग में आती-जाती है इसलिए भी मैं लिखती हूँ |

मेरा लिखना देश में किसानों की आत्महत्या को रोक नहीं सकता, मेरे लिखने से देश में हत्या और बलात्कार जैसे जघन्य अपराध नहीं रुक जाएंगे !  मेरे लिखने से देश में पसरी अराजकता खत्म नहीं हो जाएगी ! इन सबके बावजूद अगर मैं लिखती हूँ तो यह चाहती हूँ कि मेरे भीतर पसरी हुई बैचेनी थोड़ी कम हो जाए | मैं इसलिए लिखती हूँ कि इन बुराइयों का विरोध कर सकूं | इन बुराइयों के विरोध में उपजा मेरा लेखन उन बीज की तरह है जिसमे किसी दिन पेड़ बनने की सम्भावना मुझे नजर आती है | इसलिए भी मैं लिखती हूँ |


मैं सिर्फ अपने लिए नहीं आपके लिए भी लिखती हूँ कि आप मेरे लिखे को कभी समय निकालकर पढ़ सकें और अपनी खोई हुई मनुष्यता की ओर लौटने की कोशिश कर सकें | अगर आपके लिए पढना संभव न भी हुआ तो मेरे लिखने से दुनिया को कोई नुकसान भी नहीं होनेवाला है | क्योंकि मैं कोई अपराधी तो हूँ नहीं और न लोगों के दिल दिमाग में डर पैदा करने वाली शख्स हूँ | मैं तो बस लिखनेवाली बस एक अदना सी कलमकार हूँ, आपके लिए जिसे लेखक मान लेने की मजबूरी भी नहीं है | किन्तु मेरे लिखे से फिर भी आप अराजक होने की छवि से डर जाते हैं, तो इसका अर्थ है की मनुष्यता के पक्ष में इस डर को बनाए रखने के लिए मेरा लिखना कितना महत्वपूर्ण है | अराजक लोगों के इस डर ने ही तो दुनिया भर में शब्द और विचारों की महत्ता को स्थापित किया है | इस स्थापना को मैं और प्रगाढ़ करना चाहती हूँ | मैं पूरी दुनिया में मनुष्यता को बचाए रखने की पक्षधर हूँ इसलिए भी मैं लिखती हूँ |

क्रमश:
     


  

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