गुरुवार, 23 नवंबर 2017

हरियाली और धुप (रविवार की डायरी )


जंगल, नदियाँ, खेत और कस्बे हमेशा मेरी कमजोरी अभिप्राय यह की प्राकृतिक दृश्यात्मकता मुझे बहुत पसंद है| पक्षियों का कलरव, भौरों का गुनगुनाना, तितलियों का मंडराना ! अक्सर मन में एक सवाल उठता है – किसने सिखाया होगा प्रकृति को यह संगीत ? दिन भर झरते पत्तों के साथ रात को उम्रदराज होती वनस्पतियाँ, सुबह खिलने को उत्सुक | प्रकृति शायद अपने-आपसे सीखती है खुद ही अपनी गुरु है खुद ही अपनी शिष्य है |
        यायावरी मेरी प्रवृति है किन्तु अभी तक मैंने कोई बड़ी यात्राएं नहीं की लेकिन ऐसा लगता है कि इस धरती पर मेरी हर चीज जानी पहचानी है | ख्वावों का टेलीस्कोप और कल्पना की तिलस्मी मेरे अन्दर कूट-कूटकर भरी पड़ी है | मेरा ये मानना है कि जब मैं अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में होऊँगी तो संसार के किसी स्थान का रहस्य मुझसे अछुता नहीं होगा | भले ही मैं वहां जाऊं या न जाउँ | विचारों के इन्ही कल्पना लोक में घूमते हुए इक्का-दुक्का कार या लारी सरररssss से बगल से गुजरता | गति इतनी मानो पलक झपकते आँख से ओझल ! पतिदेव ने कहा इसे रिंग रोड कहते हैं | खूब चौड़ी सडकें | सड़क पर धान सुखाती कृषक महिलाएं | उन्हें न तो आने वाली बड़ी-बड़ी गाड़ियों का डर न रफ्तार का भय ! ढिठाई से लबरेज ये स्त्री-पुरुष दोनों धान को सुखाने और फैलाने में मशगुल | हमारी गाड़ी की रफ्तार चालीस के आसपास थी | कनछिया कर ये महिलायें हमे देखती और अपने पुरुष साथी को मुस्कराकर कुछ कहती | इनको देखकर पिताजी याद आए |
अपने बचपन में हम भी पिताजी के साथ खेत जाते थे , दालान पर धान की दउनी बड़े ही ततपरता के साथ करवाते थे | दादी के निर्देश का कड़ाई से पालन | अचानक गाड़ी मे ब्रेक लगने से विचारों के सिलसिले मे विराम लगा | मैनें इनसे पुछा और कितना दूर है कालेज ? इन्होंने कहा अभी और आधा घंटा | तकरीबन दो किलोमीटर बाद धान वाला परिदृश्य गायब ! हरे छोटे-छोटे पेड़ जामुनी रंग के बैगनों से लदे हुए, पता गोभी, गेन्दा का फूल तथा पपीता का बगान मन को मोह लेनेवाला | शहर के बाहर की हरियाली देखकर मन तिरपित ! हर तरह के पेड़, जंगली फूल तथा हरी सब्जियां | धरती हरियाली की  चादर ओढे बेहद खुबसुरत !
      सन्नाटा ! प्रकृति आवाजों के इको (echo) ! चिड़ियों का कलरव , बंदरों की खोखियाहटे ! कहीं-कहीं हाइवे पार दूर बनती इमारतों में काम करते मजदूरों का कोलाहल ! आखिरकार हम पहुंच ही गए बेटा के कालेज |
      अचानक से अपने कमरे के सामने माँ को पाकर विस्मित और खुशी मिश्रित हंसी बेटा के होठों पर | माँ-पापा आप दोनों यहाँ ! एकदम से कैसे ? बाहर बैठिए अभी आता हूँ | मेस की रसोई से आती खुशबू ! इन सबके बीच परिवारविहीन वरिष्ठों की उदासी आँखों से अछुता न रहा | उदासी मिश्रित मुस्कराहट के साथ अभिवादन नमस्ते आंटीजी , नमस्ते अंकलजी | बातचीत के क्रम में पता चला ये सेकेण्ड इयर के छात्र हैं, तथा अलग-अलग राज्यों से हैं | बाहर छात्रावास के किनारे विशाल पेड़ के नीचे सीमेंटेड बेंच पर हम विराजमान प्रतीक्षारत ! पढाई का प्रेशर तथा घर की सुविधाओं से विहीन बेटा कमजोर दिखा ........मैंने कहा–अन्नी चलो यहाँ से ! लेकिन अनुराग तो खूब रिलेक्सड मीठी मुस्कराहट के साथ इनकार नहीं माँ अभी नही .........| हैदराबाद के प्रदूषित आवोहवा से दूर  वनवास ही सही इसने अपनी कुटिया यहीं बना ली | मैंने पुन: आग्रह करते हुए कहा बेटा अभी दो दिन आकर हुआ अन्नी अकेलापन महसूस होता होगा चलो | उसने कहा नहीं माँ –व्यस्तता काफी है समय नहीं मिलाता | हमेशा मुझे छेड़ता ही तो है, देखो माँ ! ये लम्बे पेड़ मेरे दोस्त हैं बिल्कुल मेरी तरह लम्बा | इन्होंने  बताया 100 एकड़  कैम्पस है, मुश्किल से दस एकड़ इन्होंने कालेज के लिए उपयोग किया है | बाँकी नितांत खाली बियावान जंगल ! छात्रावास परिसर में खड़े लम्बे पतले आसमान को छुते पेड़ संतरियों की भाँती निश्चल, शांत मानो योगी | परिसर में शान्ति इतनी कि कोई सुखा पत्ता गिरे तो खड़ssss........बीज गिरे तो टप्पsssss....... आवाज......|
घास घनी झाड़ियो के बीच घूमते आवारा कुत्तों के झुण्ड.....| बिस्किट फेकनें पर अकचका कर हमें देखते हुए | फिर छीनाछपटी के लिए होड़ | दूसरे किनारे पर जंगली झाड़ियों के फूल तथा कैम्पस प्रबन्धन द्वारा लगाए गए कुछ फूल | इन पर मंडराती पीली-पीली प्यारी मस्त तितलियों के झुण्ड | सूर्य ढलान  की ओर अग्रसर..........|बड़ा ही मनोहारी दृश्य | हवा के झोंके भीनी-भीनी खुशबू महक बदलती हुई....मानो परफ्यूम की दूकान में ट्रायल ले रहा हो कोई............अन्नी प्रकृति के गोद में एकदम निश्चिन्त | जब हम चलने को तत्पर हुए तो बेटा ने इलेक्ट्रॉनिक डिपार्टमेंट के असिस्टेंट प्रोफेसर पूर्णिया निवासी अनुपम गुप्ता से मिलवाया | सीधे, सरल बड़े ही बातूनी | प्रदेश में कोई अपना मिले तो चेहरे की रौनक दुगनी हो जाती है | अनुपमजी के चेहरे पर यह साफ झलक रहा था | इन्होंने कहा सर अब आप ही इसके संरक्षक हैं यहाँ, अनुराग आज से आपके अधीन | तत्परता से उन्होंने जिम्मेदारी ले ली | मन को काफी सुकून मिला | शांत, सरल और विनोदी स्वभाव के अनुपमजी ने कालेज से सम्बन्धित बहुत सारी मौलिक जानकारी दी | लगे हाथ हमने उनसे कहा कि अगर आप व्यस्त नहीं हैं तो रविवार को घर आइये आपका अपना घर है | उन्होंने निमत्रंण स्वीकार कर लिया | हमारा बतियाना अंतहीन था | सांझ हो चुका था, पक्षी पेड़ो के झुरमुट में शांत, तितलियाँ भी गायब हो चुकी थी.....कुत्तों के झुण्ड भी आसपास नजर नहीं आ रहा था | परिसर में काम करनेवाले मजदुर भी अपने घर की ओर अग्रसर | इन्होंने कहा हमें भी अब चलाना चाहिए | अनुपमजी से विदा लेकर हम निकल पड़े घर की ओर ........मन में संतुष्टि आत्मा में गहरा सुकून | अनुपमजी की मानवीय गरिमा और सच्चेपन के साथ ........|
                                                                                                                                                    अर्पणा दीप्ति    
                                                                    
                                                                                                               
                                                                                                                    

                                                                                                                                
   
 
         
  


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