शुक्रवार, 10 मई 2013

लोकनायक गोस्वामी तुलसीदास की समन्वय साधना




महात्मा बुद्ध के बाद भारत के सबसे बड़े लोकनायक महात्मा तुलसीदास थे। वे युग्स्रष्टा के साथ-साथ युगदृष्टा भी थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार:-"लोकनायक वही हो सकता है जो समन्वय कर सके। क्योंकि भारतीय जनता में नाना प्रकार की परस्पर विरोधिनी संस्कृतियाँ, साधनाएँ, जातियाँ, आचारनिष्ठा और विचार-पद्धतियाँ प्रचलित हैं। बुद्धदेव समन्वयकारी थे। गीता में समन्वय की चेष्टा है और तुलसीदास भी समन्वयकारी थे।" (हिन्दी साहित्य की प्रवृतियाँ-डॉ.जयकिशन प्रसाद खंडेलवाल-पृ.सं.२२३) लोकनायक उस महान व्यक्ति को कहा जा सकता है जो समाज के मनोविज्ञान को समझकर प्राचीनता का संस्कार करके नवीन दृष्टिकोण से उसमें उचित सुधार करके जातिगत संस्कृति का उत्थान करता हो। उस युग के संदर्भ में यह कहना सर्वथा उचित होगा कि गोस्वामी तुलसीदासजी की वाणी की पहुँच मानव-हृदय के समस्त भावों एवं मानव-जीवन के समस्त व्यवहारों तक दिखाई देती है। उनके काव्य में युग-बोध पूर्णरूपेण मुखरित हुआ है।

"कलि मल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सद्‍ग्रंथ।
दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किए बहुपंथ॥" 

इस प्रकार तुलसी अपनी समन्वय-साधना के कारण उस युग के लोकनायक थे। तुलसीदास में वह प्रगतिशीलता विद्यमान थी, जिससे वे परिस्थितियों के अनुकूल नवीन दृष्टिकोण अपना कर प्राचीनता का संस्कार कर सकें। इतनी विषमताओं में साम्य स्थापित करनेवाला पुरुष यदि लोकनायक नहीं होगा तो और कौन होगा? 
भक्ति शील और सौन्दर्य के अवतार तुलसी के राम:- तुलसी के राम सर्वशक्तिमान, सौन्दर्य की मूर्ति एवं शील के अवतार हैं। वे मर्यादापुरुषोत्तम हैं। 

"जब-जब होहि धरम के हानि। बाढ़हि असुर महा अभिमानी॥
तब-तब धरि प्रभु मनुज सरीरा। हरहिं सकल सज्जन भव पीरा॥"

अर्थात जब-जब समाज में विश्रृंखलता उत्पन्न होकर उसकी गति रुद्ध होती है तब-तब किसी एक महापुरुष का अविर्भाव होता है एवं गति-रुद्धता समाप्त होकर पारस्परिक सहयोग एवं समानता का वातावरण बनता है। रामराज्य भी इसी दिशा में एक कदम है। महाभारत के कृष्ण ने महाभारत का संचालन कर प्रतिकूल शक्तियों का उन्मूलन किया एवं ज्ञान, कर्म और शक्ति की एकता स्थापित की। कालातंर में कर्मकांड में हिंसा की प्रमुखता एवं ज्ञान और भक्ति का ह्रास होने पर बुद्ध अवतरित हुए। शांति, अहिंसा, मैत्री एवं प्रेम का विश्वव्यापी वातावरण तैयार हुआ जिसे साहित्य एवं इतिहास में बुद्धकाल के नाम से जाना गया। किंतु ८वीं शताब्दी में बौद्धधर्म भी कर्मकांड के जाल में फँसता चला गया, एवं दो शाखाओं में विभाजित हो गया व्रजयान और महायान। इन शाखाओं ने वाममार्गी साधना पर अधिक जोर दिया परिणामस्वरूप समाज में दुराचार एवं अव्यवस्था फैलने लगा। ठीक इसी समय जगदगुरू शंकराचार्य का प्रादुर्भाव हुआ। उन्होंने धार्मिक क्षेत्र में अद्वैत सिद्धांत की स्थापना की। जिससे कर्मकांड में उलझी जनता एवं समाज को थोड़ी बहुत राहत मिली, बाद में गोस्वामी तुलसीदास ने आदर्शहीन एवं विलासिता में मग्न समाज का उत्थान करने के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम राम के चरित्र को मानस में उतारा। उन्होंने विशृंखल समाज को मर्यादा के बंधन में बाँधकर समन्वय की भावना उत्पन्न की और लोकधर्म का नवीन संस्कार किया। 

राम का लोकसंग्रही रूप एवं धार्मिक समन्वय:- तुलसी ने तत्कालीन बौद्ध सिद्धों एवं नाथ योगियों की चमत्कारपूर्ण साधना का खडंन करके राम के लोकसंग्रही स्वरूप की स्थापना की। राम के इस रूप में उन्होंने समन्वय की विराट चेष्टा की है। तत्कालीन समाज में शैवों, वैष्णवों और पुष्टिमार्गी तीनों में परस्पर विरोध था।  इस कठिन समय में तुलसीदास ने वैष्णवों के धर्म को इतने व्यापक रूप में प्रस्तुत किया कि उसमें उक्त तीनों संप्रदायवादियों को एकरूपता का अनुभव हुआ। मानस में तुलसी के इस प्रयत्न की झाँकी देखी जा सकती है। राम कहते हैं-
"शिव द्रोही मम दास कहावा। सो नर मोहि सपनेहु नहिं भावा॥
 संकर विमुख भगति चह मोरि। सो नारकीय मूढ़ मति थोरी॥"

इसी प्रकार उन्होंने वैष्णवों और शाक्त के सामंजस्य को भी दर्शाया है।

"नहिं तब आदि मध्य अवसाना।अमित प्रभाव बेद नहिं जाना।
भव-भव विभव पराभव कारिनि। विश्व विमोहनि स्दबस बिहारिनि॥"

पुष्टिमार्गी के ’अनुग्रह’ का महत्त्व भी दर्शनीय है-

"सोइ जानइ जेहु देहु जनाई। जानत तुमहि होइ जाई॥
तुमरिहि कृपा तुमहिं रघुनंदन। जानहि भगत-भगत उर चंदन॥"

यह तो हो गई तुलसीदास की तत्कालीन धार्मिक वातावरण एवं उसमें समन्वय स्थापित करने की बात।  इसका दूसरा पक्ष भी था उस युग में सगुण और निर्गुण उपासना का विरोध। जहाँ सगुण धर्म में आचार-विचारों का महत्त्व तथा भक्ति पर बल दिया जाता था वहीं दूसरी ओर निर्गुण संत साधकों ने धर्म को अत्यंत सस्ता बना दिया था। गाँव के कुँओं पर भी अद्वैतवाद की चर्चा होती थी; किंतु उनके ज्ञान की कोरी कथनी में भावगुढ़ता एवं चिंतन का अभाव था। तुलसीदास ने ज्ञान और भक्ति के विरोध को मिटाकर वस्तुस्थिति स्पष्ट कर दी।

"अगुनहिं सगुनहिं कछु भेदा। कहहिं संत पुरान बुधवेदा॥
अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सी होई॥"

ज्ञान भी मान्य है किंतु भक्ति की अवहेलना करके नहीं। ठीक इसी प्रकार भक्ति का भी ज्ञान से विरोध नहीं है। दोनों में केवल दृष्टिकोण का थोड़ा-सा अंतर है। राम कहते हैं-

"सुनि मुनि तोहि कहौं सहरोसा। भजहि जे मोहि तजि सकल भरोसा॥
करौं सदा तिन्ही कै रखवारी। जिमि बालकहिं राख महतारी॥
गह सिसु बच्छ अनल अहिधाई। तह राखै जननी अरू गाई॥
प्रौढ़ भये तेहि सुत पर माता। प्रीति करे नहिं पाछिल बाता॥
मोरे प्रौढ़ तनय सम ग्यानी। बालक सुत सम दास अमानी॥
 जानहिं मोर बल निज बल नाहीं। दुह कहँ काम क्रोध रिपु आहीं॥
यह विचारि पंडित मोहि भजहि। पाएहू ग्यान भगति नहिं तजहीं॥"

हृदय की स्वच्छता पर बल:- तुलसीदास ने तत्कालीन धार्मिक संप्रदायवाद में बाह्याडंबर को प्रधानता न देते हुए हृदय की स्वच्छता पर बल दिया। तुलसी के राम ने संतों के जो लक्षण बताए हैं, उसके मूल में हृदय की स्वच्छता है। 
"निर्मल मन सोइ जन मोहि पावा। मोहि न कपट-छ्ल-छिद्र सुहावा॥"

यह उस समय की धार्मिक स्थिति की माँग थी। तुलसीदास धार्मिक नेता ही नहीं अपितु महान समाज-सुधारक भी थे। रामराज्य की कल्पना के द्वारा उन्होंने उस समय के विद्यमान राजनीतिक गंदगी को दूर करने का यथासंभव प्रयास किया। मुसलमानों की राजनीति से हिंदू जाति आक्रांत थी। इन विषम परिस्थितियों में तुलसीदास ने खलविनाशक राम के शक्तिशाली जीवन द्वारा लोकशिक्षा का पाठ पढ़ाया। किस प्रकार अत्याचार का घड़ा भरने पर अंतोगत्वा फूटता ही है, तथा उसके विरूद्ध विद्रोह होता है और शांति की स्थापना होती है, यह मानस में देखने को मिलता है। तुलसी दास ने रामराज्य की आदर्श कल्पना कर समाज के समक्ष यह उदाहारण प्रस्तुत किया कि राजा का आदर्श प्रजा-पालन एवं दुष्टों का विनाश है।
समाज की मर्यादा का निरूपण:-तुलसीदास ने समाज की मर्यादा का निरूपण लोक-जीवन के विविध संबंधों के माध्यम से दर्शाया है-’पिता-पुत्र’, ’माता पुत्र’, ’भाई-भाई’, ’राजा-प्रजा’, ’सास-बहू’, ’पति-पत्नी’ इत्यादि उन सभी की मर्यादा का वर्णन राम के महाकाव्यात्मक विस्तृत जीवन के अनेक प्रसंगों के माध्यम से किया। बदलाव युग की आवश्यकता एवं समय की माँग थी, पुरानी रूढ़ियों एवं सामाजिक मर्यादा के प्रति विद्रोह के स्वर सुनाई पड़ रहे थे।तुलसीदास ने इस विद्रोह को भली-भाँति सुना, देखा और समझा। तुलसी ने मानस में कहा भी है-
"बरन धरम नहिं आश्रम चारी। श्रुति विरोध रत सव नरनारी॥
द्विज श्रुति बंचक भूप प्रजासम। कोउ नाहिं मान निगम अनुसासन॥"

तुलसी का मानस स्वान्त: सुखाय होते हुए भी परजन-हिताय का संयोजक था। इसकी परिणति हमें संत के जीवन में देखने को मिलता है। 

’मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥"

तुलसीदास ने मानस में लोक और वेद, व्यवहार एवं शास्त्र का समन्वय प्रस्तुत किया है।

"चली सुगम कविता सरिता सो। राम विमल जस भरिता सो॥
सरजू नाम सूमंगल मूला। जाकि वेद मत मंजुस कूला॥"

चित्रकूट में भरत-राम मिलन के अवसर पर होने वाली सभा में तुलसी ने भरत के वचनों के द्वारा साधुमत, लोकमत, राजनीति एवं वेदमत के मध्य सुंदर समन्वय प्रस्तुत किया है। पं. रामचंन्द्र शुक्ल के अनुसार-" साधुमत का अनुसरण व्यक्तिगत साधन है, लोकमत लोकशासन के लिए है। इन दोनों का सामंजस्य तुलसी की धर्म भावना के भीतर है।" (हिन्दी साहित्य की प्रवृतियाँ-डॉ.जयकिशन प्रसाद खंडेलवाल-पृ.सं.२२६)
आध्यात्मिक क्षेत्र में समन्वय:-उस युग में ईश्वर प्राप्ति के साधनों की बहुलता थी। विभिन्न दर्शनों के मक्क्ड़जाल में जनता उलझी हुई थी। तुलसीदास ने द्वैत-अद्वैत, द्वैताद्वैत-तीनों सिद्वान्तों को भ्रम मानते हुए कहा-
"तुलसी दास परिहरै तीन भ्रम सो आपन पहिचानै।"

उनके ब्रह्म की मर्यादा विशिष्टाद्वैत से ही निर्मित है-

" सीया-राममय सब जग जानी। करहूँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥"

काव्य शैली में समन्वय:- तुलसी पूर्णतया समन्यवादी थे। उन्होंने काव्य की भाषा-शैली पर भी समन्वय की मोहर लगा दी। उन्होंने अपने समय की तथा पूर्व प्रचलित सभी काव्य-पद्धतियों को राममय करने का सफल प्रयास किया। यहाँ तक की सूफियों की दोहा-चौपाई पद्धति, चन्द के छ्प्पय और तोमर आदि, कबीर के दोहे और पद, रहीम के बरबै, गंग आदि की कवित्त-सवैया-पद्धति एवं मंगल-काव्यों की पद्धति को ही नहीं वरन जनता प्रचलित सोहर, नहछू, गीत आदि तक को उन्होंने रामकाव्यमय कर दिया। इस प्रकार उन्होंने काव्य की प्रबंध एवं मुक्तक-दोनों शैलियों को अपनाया। उन्होंने तत्कालीन कृष्ण-काव्य की ब्रज-भाषा और प्रेम-काव्यों की अवधी भाषा-दोनों का प्रयोग कर अपने समन्वयकारी दृष्टिकोण का परिचय दिया।
स्वानत:सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा : लोककल्याण- तुलसी के काव्य में लोकसंग्रह की भावना अविच्छिन्न रूप से व्याप्त है। इसके जरिए तुलसी ने ’सत्यं शिवं सुन्दरं’ को साकार किया है। तुलसीदास ने अपने काव्य का सृजन स्वान्त: सुखाय किया या परांत सुखाय, यह भी विचारणीय है। स्वयं तुलसीदास ने लिखा है कि मैंने रघुनाथ-गाथा ’स्वान्त: सुखाय’ लिखा है। डॉ. श्यामसुन्दर के अनुसार-"तुलसीदासजी ने जो कुछ भी लिखा है, ’स्वान्त: सुखाय’ लिखा है। उपदेश देने की अभिलाषा से अथवा कवित्त्व-प्रदर्शन की कामना से जो कविता की जाती है उसमें आत्मा की प्ररेणा न होने के कारण स्थायित्व नहीं आता। तुलसी की रचना में उनके हृदय से सीधे निकले हुए भाव है, इसी कारण तुलसी का काव्य सर्वश्रेष्ठ है।"(हिन्दी साहित्य की प्रवृतियाँ-डॉ.जयकिशन प्रसाद खंडेलवाल-पृ.सं.२२७) तुलसी ने रामकाव्य की रचना का उद्देश्य ही लोककल्याण बताया है; यथा-
"कीरति भनिति भूति भलि सोई।
सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥"


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