रविवार, 24 मार्च 2013

आलेख


मातृत्व वरदान या अभिशाप

मातृत्व स्त्री जीवन की परिपूर्णता है, किंतु अगर उसे व्यापार बना दिया जाए; तो ’माँ’ की पवित्रता  के साथ इससे गन्दा एवं भद्दा मजाक और क्या हो सकता है? वर्तमान दौर में विज्ञान इतना विकसित हो चुका है कि मनुष्य के पास अपना ह्रदय तक नहीं बचा; ह्रदय भी यांत्रिक हो चुका है साथ ही साथ ज्ञान एवं विज्ञान भी अपचित। आज के बदलते परिवेश, तेज रफ़्तार से भागती जिन्दगी एवं उत्तर आधुनिक जीवन शैली में कामकाजी महिलाओं के पास इतना समय नहीं है कि वे माँ बनने के लिए अपने करियर को दाँव पर लगाने का जोखिम उठाएँ। वह सोचती हैं कि अगर कुछ पैसे खर्च करने से कोख किराए पर मिल जाता है तो इसमे बुराई क्या है?

वैसे तो किराए पर कोख खरीदने का प्रचलन सर्वप्रथम पश्चिमी देशों में शुरू हुआ। इसके लिए यह प्रावधान था कि ऐसी महिलाएँ जो किसी घातक बीमारी के कारण अपना बच्चा पैदा करने में असमर्थ हो; दूसरी स्त्री की सहमति से उसका कोख किराए पर खरीद सकती हैं। किराए पर कोख बेचने वाली स्त्री को "सरोगेटमदर" का नाम दिया गया।

यहाँ यह प्रश्न उठना स्वभाविक है कि सरोगेसी है क्या? अगर कुछ कारणवश माता-पिता अपने संतान को जन्म देने में असमर्थ हैं तब ऎसे में इस नि:संतान दंपत्ति का gamte किसी दूसरी स्वस्थ औरत के गर्भाशय में स्थापित कर दिया जाता है इस प्रक्रिया को 'सरोगेसी' तथा गर्भधारण करनेवाली महिला को 'सरोगेटमदर' कहा जाता है। इस तकनीक का फायदा क्या है? कोई स्त्री जिस पर समाज द्वारा बाँझ होने का ठप्पा लगा दिया जाता था, वह अब बाँझ नहीं कहलाँएगी एवं इस तकनीक के द्वारा वह अपना जैविक (bilogical ) बच्चा बनवा सकती है। पुरुष भी निःसंतान नहीं कहलाएँगे।

इस प्रक्रिया में जहाँ इसका एक पक्ष सकारात्मक है वहीं दूसरा पक्ष नकारात्मक भी है। कुछ सम्भ्रांत परिवार के पुरुषों का कहना है मैं नहीं चाहता कि मेरी पत्नी का फिगर ख़राब हो जाए। या फिर ग्लैमर की दुनियाँ से जुड़ी figur concious महिलाएँ लम्बे अरसे तक आकर्षक दिखने की चाह में अपने कोख से बच्चा पैदा करना नहीं चाहती, या फिर प्रसव पीड़ा को सहन करने के डर से अपने संतान को जन्म देने के बजाए बनवाने में ज्यादा आश्वस्त दिखती हैं। ऐसा करके ये माता-पिता baby selling को बढ़ावा दे रहें हैं। वे यह नहीं जानते कि ऐसा करने से बच्चे के साथ उनका blood bonding तो ख़त्म हो ही रहा है, साथ ही soul bonding भी नष्ट हो रहा है। नौ महीने तक बच्चे को अपने गर्भ में धारण करना तत्पश्चात फिर कठिन प्रसव पीड़ा झेलने के बाद संतान को अपनी गोद में लेकर सीने से लगाकर, दूध पिलाना माँ के लिए आनंद का अलौकिक क्षण होता है। माँ गर्भधारण से लेकर प्रसव पीड़ा की प्राणांतक तकलीफ इस एक क्षण में भूल जाती हैं। क्या कोख किराए पर खरीदनेवाली माताएँ प्रक्रति प्रदत इन अलौकिक सुखों से वंचित नहीं रह जाएँगी?

जहाँ कुछ बुद्धिजीवी वर्ग का मानना है कि सरोगेसी अनैतिक ( unethical ) है, वहीं उनमें से कई लोगों का यह भी मानना है कि यह एक प्रकार का व्यापर (barter ) है। अगर शिक्षा बेची जा सकती है किताव कापीं बेचे जा सकते हैं तो जरूरतमंद औरतें अपनी कोख क्यों नहीं बेच सकती है? अगर किसी चप्पल सीने वाली स्त्री या मजदूरी करके पेट पालने वाली स्त्री को नौ महीने के लिए अपनी कोख बेचने के एवज में दस लाख रुपया मिल जाता है तो इसमें बुराई क्या हैं? उन्हें भी तो सुनहरे सपने देखने का अधिकार है, अपना भविष्य संवारने का अधिकार है। चप्पल सीकर या मजदूरी करके  उम्र पर्यन्त वह दस लाख रुपये नहीं कमा सकतीं!


जरुरतमंद के मायने में यह गलत नहीं है। वहीं दूसरी तरफ इसमे कुछ जटिलताएं भी है अगर गर्भावस्था के दौरान यह पता चलता है कि बच्चा असामान्य(abnormal ) है, या फिर माँ की जान को खतरा है तो ऐसे में कानूनी माता-पिता अपनी जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ लेते हैं। वे कहते हैं साहव हमने तो स्वस्थ एवं सामान्य बच्चे के लिए कोख किराएँ पर ली हैं न कि असामान्य बच्चे के लिए।  माँ की जान की जिम्मेदारी भी हमारी नहीं है। ऐसे में इन सब चीजों के लिए कानून बनना चाहिए। बच्चा स्वस्थ हो या अस्वस्थ, सामान्य हो या असामान्य कानूनी माता-पिता इसकी दायित्व लें। तथा गर्भावस्था के दौरान माँ की जिम्मेदारी भी कानूनी माता-पिता की होनी चाहिए। अपने दायित्त्व से पीछे हटने पर उनके लिए कानूनी तौर पर कठोर सजा का प्रावधान होना चाहिए।

भारत जैसे विकासशील देश में सरोगेसी व्यापार का शक्ल अख्तियार कर रहा है। सरोगेट इंडस्ट्री दिन दूनी रात चौगुनी फलफूल रही है। इसका मुख्य कारण यह है कि पश्चिमी देशों में जहाँ यह काफी खर्चीला है वहीं भारत जैसे गरीब देश में ब्रिटेन या अमेरिका के अपेक्षा एक तिहाई खर्चा करने पर कोख आसानी से खरीदा जा सकता है। अगर सरोगेसी को व्यापार में बदलने से रोकना है तो पश्चिमी देशों के जरिए होने वाले इस अवैध व्यापार पर भारत में कानूनी रोक लगनी चाहिए। विदेशियों पर प्रतिबंध लगने चाहिए।  भारतीय मातापिता भारत में ही सरोगेट मदर खोजें। तथा भारत में भी सरोगेसी की अनुमती उन्हें ही दिया जाए जो माँ ह्रदय रोग या किसी अन्य प्राण घातक बीमारी से पीड़ित हों। इस क्षेत्र में दान की वृहतर भावना को भी बढ़ावा मिलना चाहिए न कि इसे इकॉनोमिकली देखा जाना चाहिए। साथ ही अनाथ बच्चों को गोद लेने पर भी बल दिया जाना चाहिए। अमेरिका तथा ब्रिटेन जैसे देशों में सरोगेट मदर ही बच्चे की कानूनी माँ होती है, किंतु भारत में ऐसा प्रावधान नहीं है। विशेषज्ञों या डॉक्टरों का मानना है कि सरोगेट मदर का न तो अपना ओवेरी ( overy ) होता है न स्पर्म (sperm ) सिर्फ बच्चा माँ के गर्भाशय में पोषण प्राप्त करता है। ऎसे में बच्चे में माँ का अनुवांशिक या जेनेटिक गुण भी नहीं आता है। अगर बच्चे के जन्म के बाद माँ भावनात्मक तौर पर बच्चे से जुड़ती है तो भी बच्चे को अपने पास रखने का अधिकार उसे प्राप्त नहीं होता। अगर बच्चा बड़ा होकर जन्म देनी वाली माँ को ही अपना माँ मान बैठे, तो ऐसी परिस्थिती में बच्चा दिमागी तौर पर तनावग्रस्त हो सकता है।

कुछ लोगों का मानना यह है कि वास्तव में सरोगेसी भारतीय संस्कृति का अतिक्रमण है तथा इसके लिए भारतीय संस्कृति में कोई स्थान नहीं होना चाहिए, यह तो पाश्चात्य संस्कृति की देन है। किंतु संस्कृति को इतना संकुचित बना देना कट्टरवाद के अलावा और कुछ नहीं है। वस्तुत: सरोगेसी कांसेप्ट का विरोध नहीं करके उससे उत्पन होने वाली जटिलताओं का विरोध किया जाना चाहिए सरोगेसी मुख्य रूप से  फास्ट फ़ूड (fast food ) वाली पद्धति है, हमारे पास समय का अभाव है बाजार में बना बनाया खाना उपलव्ध है, बनाने से बेहतर खरीद लेना अच्छा है। ठीक उसी प्रकार कामकाजी महिलाएँ सोचती है बच्चा पैदा करने का समय हमारे पास है नहीं, ऎसे में बेहतर है पैसा देकर अपना बच्चा बनवा लिया जाए। ऐसी महिलाओं पर कानूनी रोक लगनी चाहिए। क्या ऐसी माँ जो समयाभाव के कारण कोख किराये पर खरीद रहीं हैं वे अपने बच्चे से भावनात्मक तौर पर कभी जुड़ पाएँगी कतई नहीं? इन महिलाओं की काउंसलिंग की जानी चाहिए एवं साफ्ट रीजन पर पाबंदी लगनी चाहिए। इस बात से बिलकुल इंकार नहीं किया जा सकता कि सरोगेसी ब्लैक &वाईट (black & white) नहीं बल्कि एक ग्रे एरिया ( grey area ) है

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