शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

'प्रेम ज्योति का सूरज' के मुख्य सरोकार







प्रेम ज्योति का सूरज कवयित्री ज्योति नारायण का पहला  कविता संग्रह है। 2003 में सूरज नारायण प्रकाशन हैदराबाद द्वारा प्रकाशित प्रथम संस्करण में कुल 110 पॄष्ठ तथा 102 कविता हैं। ज्योति नारायण की कविता की विशेषता यह है कि इसे अत्यंत सहज एवं सरल भाषा में लिखा गया है तथा इसमें विचारों और भावनाओं को बिना लाग लपेट के सीधे-सीधे  प्रकट किया गया है । कविता में गहराई खोजने वालों को इस संकलन से कुछ निराशा भी हो सकती है क्योंकि इसमें  अभिधा की प्रधानता है।



इन कविताओं को पढ़ने  से पता चलता है कि कवयित्री अपने समाज और समय के प्रति जागरूक हैं। स्त्री रचनाकारों के बारे में प्रायः यह कहा जाता है कि वे घर और चूल्हे तक ही सीमित रहती हैं । लेकिन कवयित्री ज्योति नारायण के  गॄहिणी होते हुए भी उनका काव्य संसार घर और चूल्हे  तक सीमित नहीं है बल्कि समाज ,राजनीति ,जीवन और जगत के बारे में वे अपने स्वतंत्र विचार रखती हैं। जो भी चारो तरफ घटता है उससे प्रभावित होतीं हैंद्रवित होती हैं और इसलिए कविता लिखती हैं। हर्ष और विषाद दोनों हीं उनकी कविताओं में है। कुछ कविताओं में किशोर स्त्री का  उत्साह,उल्लास और हर्ष दिखाई देता है____


"मै मन के बाग में मोरनी सी मुस्काती ,

नभ पे बदरी बन छा जाती ,

कभी बुँदिया बन बरस जाती ,

फिर नदिया बन लहरा जाती। " (उम्र सारी जी जातीपॄ.32)



दूसरी तरफ ऐसी कविताएँ भी हैं जिनमें वे बहुत खिन्न और अपने आप में सिमटी या अवसादों से घिरी प्रतीत होती हैं _____



"मैं आवाज भी हूँ और मौन भी

मैं दर्द भी हूँ और मौज भी ,

..................................

मुझमे नहीं किसी का ओज

न ही हूँ मैं किसी की खोज ।" (मैं-पॄ.32)



बनावटी मुखौटों से आहत कवयित्री उजले दर्पण की तलाश करती नजर आती हैं______



"दिखावे के लिए चेहरे पर लिपटा आवरण नहीं

पर दिल में बसने के लिए उजला दर्पण तो चाहिए ।
(उजला दर्पण तो चाहिए-पॄ.30)



मैं यहाँ जोर देकर यह कहना चाहूँगीं कि ज्योति नारायण के इस संकलन की कविताओं  का पहला सरोकार राष्ट्रीयता है। इसीलिए कवयित्री भारत के गौरवशाली अतीत तथा सीमाप्रहरियों पर गर्व करती नजर आती हैं_______

"उबड़ - खाबड़ कठिन रास्तों पे चलते हुए,

सीना ताने आगे-ही-आगे खड़े  रहे। " (सीमा प्रहरी-पॄ.3)


कवयित्री का मानना है कि युद्ध की विभीषिका अंततः निर्दोष स्त्रियों एवं मासूम बच्चों को ही भुगतनी पड़ती है_______

"कोई बिंदिया कोई कंगना गोद क्यों खाली हुई,
 जंग ही फिर जंग यहाँ सभ्यता ही कलंकित हुई। 
(पुरनम-पुरनम हुई-पॄ.4)




कश्मीर की समस्या और आतकंवाद के रूप में हमारे ऊपर  थोपे गए युद्ध के लिए कौन जिम्मेदार है? केसर और सेब कब तक धूल में मिलते रहेगें ? बर्फ कब तक अंगार बनेगा ? आखिर कब तक इन सबको चुप रह कर  सहन किया जा सकता है ?_______

"आग उगलती ये पहाडियाँ,

धुआँ-धुआँ हो रही वादियाँ।"(कश्मीर की व्यथा-पृ.9)


कवयित्री देश की हालत पर चिन्ता जताती हुई कृष्ण से प्रश्न कर रही हैं ________

" हे कृष्ण ! कुरुक्षेत्र का  क्यों वह युद्ध हुआ ,

तुमने आखिर को है क्या दिया । " (हे कृष्ण -पृ.13)



कवयित्री  का दूसरा सरोकार समाज से संबंधित है। सामाजिक विसंगतियाँ , महँगाई, भ्रष्टाचार एवं राजनीतिक पाखंड से वे काफी विचलित  प्रतीत होती हैं। भारत के सामान्य नागरिक का प्रतिनिधित्व करते हुए वे इन विसंगतियों पर आक्रामक तेवर भी अपनाती हैं। कवयित्री एक तरफ जहाँ कलम को तलवार बनाने की बात कहती हैं तो वहीं दूसरी  तरफ सीधी सादी जनता को कचरा और मलबा न बने रहने के लिए ललकारती नजर आती हैं_____

"राजनीति हो गयी यहाँ ढकोसले 
पूँजींपतियों के ही है फैसले
सीधी-सादी जनता तो बनके

रह गयी है कचरे और मलबे । "(ऎसा क्यों हो रहा है ?-पृ.18)


इस प्रकार  इन कविताओं का राजनीतिक सरोकार भी द्रष्टव्य है। कवयित्री एक स्थान पर राजनेताओं से अपील करती नजर आती हैं कि देश को धर्म संबंधी विवाद में  न घसीटें  ,कौमी दंगों में  न लपेटें तथा भाषा की लकीर न खीचें । वहीं कवयित्री यह भी प्रश्न उठाती हैं कि क्या भारत देश की धरती फिर से पहले जैसी हो जाएगी तथा क्या  पहले जैसा रामराज्य  मिल पाएगा ? इससे रचनाकार की अभीष्ट सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था का भी पता चलता हैअर्थात उन्हें देश में रामराज्य चाहिए ।

कवयित्री का अगला सरोकार स्त्री विमर्श विषयक  है। उन्होंने समाज की नारी विषयक विकृतियों और  स्वयं नारी की विवशताओं पर चोट की है। वे स्त्री  शोषण एवं पराधीनता पर दुखी नज़र  आती हैं_______

" घर की  ही दहलीज पर
बिछे हुए हैं साही के काँटे
आँगन की फुदकती गौरेया की

हम नोचने लगे हैं पाँखे । " (साही के काँटे-पृ.21)


जैसा कि प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने इस पुस्तक की भूमिका में लिखा है पितृसत्ता  यदि स्त्री को आकांक्षाओं  का आकाश नहीं दे सकती तो कम से कम उससे इच्छा रूपी  जमीन को तो न छीने क्योंकि वास्तव में स्त्री तो वह बाद में  है पहले मनुष्य है। ज्योति नारायण की भी माँग है कि स्त्री को सबसे पहले मानवी का दर्जा दिया जाना चाहिए_____

"सृष्टि की रचयिता  की मैं हूँ एक रचना

बस औरत से पहले इंसान बने  रहने की मेरी भावना ।"
(मेरी भावना-पृ.31)


इन कविताओं में  कई जगह स्त्री की परंपरागत छवि का चित्रण दिखाई देता  है। यह छवि घर की चारदीवारी में कैद ऎसी औरत की है जो पति और परिवार के लिए मंगल-दीप सजाती है, परंतु स्वयं दरवाजे के पीछे अंधेरे में खड़ी रह जाती है______

" घर की ड्योढ़ी के अंदर
चौखट पर दरवाजे के पीछे  खड़ी

जो जला रही थी दिया। (नारी-पृ.44)


कवयित्री यह भी नहीं  भूल पाती कि मानव इतिहास में  दमयंती , सीता, उर्मिला  जैसी पतिव्रता  स्त्रियों को पुरुषों की उपेक्षा का शिकार होना पड़ा है। वे मानती हैं कि इन सब के पीछे पुरुषों का अज्ञान, अहं और हठ था।

कवयित्री के सरोकारों में प्रकृति, प्रेम तथा शृंगार का भी महत्वपूर्ण स्थान है । जहाँ कवयित्री  ने देश , समाज तथा अनेक वर्तमान समस्याओं को उजागर किया है, वहीं प्रकृति, प्रेम तथा शृंगार के चित्रण मे भी वे पीछे नहीं हैं । कवयित्री कहीं कोयल की कूक  से पुलकित नजर आती हैं तो कहीं बौराये आम के मंजर में विभोर हो जाती हैं । वे होली के अबीर गुलाल से सराबोर सतरंगी इंद्रधनुष बनाती नजर आती हैं तो चंद्रप्रभा संग पूर्णिमा का चाँद बन दमकती भी दिखाई देती हैं _______

"पूनम का चाँद रजनी का
देता है यूँ घूँघट उघार
रुप सौंदर्य  झलक उठता

झाँकता है मन के द्वार ।" (पूर्णिमा का चाँद-पृ.93)


राधा के नख-शिख शृंगार का वर्णन भी कवयित्री ने सहज और सुंदर ढ़ंग से किया है______

" नख-शिख तक कर शृंगार
कान्हा बिन राधा हुई उदास
दर्पण में छवि निहार

बोल उठा तब प्रतिबिंब पुकार ।" (शृंगार गीत-पृ.103 )



इस प्रकार अपने समस्त अनुभव , भाव ,विचार तथा अनुभूतियों को कवयित्री ज्योतिनारायण ने कविताओं मे बाँधने का बड़ा ही सहज तथा सरल प्रयास किया है। यही शुभकामना है कि उनकी रचनात्मकता कस्तूरी की खुशबू की तरह दूर-दूर तक फैले । अपनी बात में  स्वयं कवयित्री यह कहती नजर आती हैं -" कवि हमेशा अपने ’ मैं ’ में जीता है और अपनी कविता में ही आत्मसात रहता  है । इस तरह एक दिन कवि मर जाता है और कविता जिंदा रहती है।''  लेकिन मेरी कामना है कि कवि और कविता दोनों जीवित रहें और दीर्घायु हों।




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